नई संसद में स्थापित सेंगोल मूल्यगत आधुनिकता का परिचायक

                                                                      परंपरा और आधुनिकता


 निश्चित तौर पर 'सेंगोल' एक राजदंड है। सांकेतिक एवं अमूर्त रूप में जिसके साथ न्यायप्रियता एवं कर्त्तव्यनिष्ठा जैसा आचरणपरक  सार्वभौमिक प्रकृति का मानव मूल्य  जुड़ा हुआ  है। मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए आवश्यक सार्वभौमिक मूल्य एवं आचरण से जुड़े मूल्य या किसी समाज विशेष से जुड़े मूल्यगत प्रावधान मानवता के लिए प्राणवायु के समान होते हैं। इन प्राणदायी मूल्यों का उद्भव एवं विकास के साथ इनकी समाज में मान्यता कोई एक दिन में नहीं मिलता । समाज के लिए दिशानिर्देशक एवं फलदाई इन मूल्यों को लघु परम्परा(little Tradition) से वृहद परम्परा(Great Tradition) का हिस्सा बनने में इतिहास की एक लम्बी यात्रा तय करनी पड़ती है।

वर्तमान का समाज, वैज्ञानिक एवं तर्कपूर्णता के साथ  सांस्कृतिक सापेक्षता (cultural relativism) एवं पंथनिरपेक्षता का है। वैज्ञानिक उन्मुखता का प्रतिनिधि होने  एवं कहलाने के बावजूद समाज की स्थिरता एवं उन्नति के लिए मानव संस्कृति के उद्विकास  की प्रारंभिक यात्रा से लेकर अब   तक उत्पन्न ऐसे अनेक मूल्यों का हम आज भी जीवनचर्या में आधारभूत ढंग से प्रयोग में लाते हैं।  भारतीय संविधान स्वयं में इसका गवाह है।जो नागरिकों को नागरिक बनने के लिए आधुनिकता के साथ परम्परा से जुड़े मूल्यों को अंगीकृत एवं आत्मार्पित करने की बात करता है।

इन आचरण एवं मानव  मूल्यों में दया, करूणा, सत्य,साहस सत्यनिष्ठा, समानुभूति, न्यायप्रियता समानता वंधुता,सह अस्तित्व, ..आदि समाहित हैं। मानव संस्कृति के प्रकाशस्तम्भ के  रूप में इन शब्दगत अवधारणाओं का स्त्रोत न तो प्रकृति विज्ञान है  न ही इसकी कोई व्यावहारिक शाखा जैसे कि  भौतिकशास्त्र एवं रसायनशास्त्र आज का नैनोभौतिकी एवं क्वांटम भौतिकी । बल्कि मानव को मानव समझने वाले इन कालजयी मूल्यों के स्रोत अलग अलग समय के पौराणिक ग्रंथ स्वदेश एवं दूरदेश के दार्शनिक विमर्शों से उत्पन्न विचार हैं। 

आज का समाज स्वयं को तकनीकी रूप से विकसित होने के बाद भी अपने कार्यस्थलों, प्रयोगशालाओं एवं शोध से जुड़े कार्यों के साथ साथ ज्ञान एवं तकनीकी से जुड़े उपभोक्ता से जुड़े भौतिक उत्पाद को बाजार में लाने से पहले मानव अस्तित्व के लिए जरूरी मूल्यों को अपने कार्य की नैतिकता से जुड़े प्रावधानों में शामिल करता है । यही कारण है कि मानव मूल्यों के साथ साथ तकनीकी विकास भी सहगामी ढंग से आगे बढ़ रहा है।

'सेंगोल' राजतंत्रात्मक चोल कालीन प्राचीन दक्षिण भारत के सांस्कृतिक इतिहास  का भाग होने के बाद भी, इसके साथ न्यायप्रियता एवं कर्त्तव्यनिष्ठा का विचार मानव संस्कृति के उद्विकास से जुड़ा ऐसा मूल्यगत तथ्य है।जो जीव रूप में मानव को मानव समझने की सोच एवं समझ देता है। तथा यह समाज के चुने हुए कुछ ऐसे अस्तित्वगामी मूल्यों में से एक है जो आज की मानव सभ्यता की जीवंतता के लिए अत्यंत आवश्यक है।

कुछ लोग कह सकते है कि भारत में स्वतंत्र न्यायपालिका के होने के बावजूद सेंगोल से जुड़ी सांकेतिक न्यायप्रियता की क्या जरूरत? इसका प्रतिउत्तर ये है कि  मानव संस्कृति के उद्विकास के साथ जुड़ा कोई भी तत्त्व जो हमें आधुनिक लोकतंत्र बनने के पहले ही  हमारे स्वयं के पूर्वजों की शासन व्यवस्था में यदि  पहले से मौजूद है  तो ऐसे में यह अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर रूप में  हमें गौरवान्वित करता है। विशेषकर उन परिस्थितियों में जब विश्व इतिहास में हम पश्चिम दुनिया की अवधारणाओं के साथ जिने के अभ्यस्त हो चुके हैं( फ्रांस की क्रांति से उत्पन्न विचार जैसे कि समानता ,वंधुता ..)। इस स्थिति में इस तरह के विचार हमें अपनी खुद की संस्कृति के दूरगामी होने की अद्भुत भावना की सुखद अनुभूति कराते हैं।इसका यह निहितार्थ नहीं होना चाहिए कि हमें दूसरों की महान दार्शनिक वौदिक  परम्पराओं का आदर नहीं करना चाहिए।

मानविकी एवं प्रवंधन के क्षेत्र में मैक्स वेबर एक बड़े चिन्तक हुए हैं। जिनकी नौकरशाही और तार्किकता से जुड़ी धारणाएं और सिद्धांत  इन विधाओं में आज भी  पढ़ी और पढ़ाई जाती हैं। उनका कहना था कि सिर्फ साधन और साध्य ( Means and Ends)आधारित कार्य एवं निर्णय ही तार्किक और आधुनिक समाज का प्रतीक नहीं होता बल्कि प्रतिदिन के जीवन में आचरण से जुड़े  मूल्यगत विचारों के साथ कार्य करने वाला व्यक्ति एवं समाज भी उतना ही तर्कसंगत एवं आधुनिक है जितना कि साधन साध्य के आधार पर निर्णय लेने वाला समाज ।इसे उन्होंने मूल्यपरक तार्किकता (value rationality) कहा।

मैक्स वेबर ने अपने मूल्यपरक तार्किकता (Value rationality) संवंधित  विचार को अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक "प्रोटेस्टेंट एथिक्स एवं स्पीरीट आप कैपिटलिज्म" (protestant ethics and spirit of capitalism) में प्रतिपादित किया और कहा कि प्रोटेस्टेंट से जुड़े कैल्विन मतावलंबियों के मूल्यगत विचारों के कारण ही आज का अधिकांश यूरोप पुनर्जागरण के बाद वाणिज्यिक क्रान्ति के साथ औधोगिक क्रान्ति को जन्म देने में सफल रहा। ये वे ही केल्विन मतावलंबी थे जो यूरोप के कैथोलिक विरोधी धर्मसुधार आन्दोलन एवं सामंतवाद के विरोधी समूह का हिस्सा थे। जबकि धार्मिक रूप में दोनों इसायत को मानते हैं।

सेंगोल के साथ जुड़ा न्यायप्रियता जैसा  सामाजिक एवं व्यक्तिगत क्रिया  मूल्यपरक तार्किकता (value rationality)का एक जीवंत उदाहरण है। यह इस बात का संकेत है कि सांस्कृतिक महत्व के स्तर पर भारतीय समाज पश्चिम की आधुनिकता से पहले ही अपने समृद्ध मूल्यों के स्तर पर  मूल्यगत तार्किकता का भी प्रतिनिधि था। आचरण एवं मानव स्वभाव के निर्धारक  मूल्य ही  किसी समाज के धरोहर कहे जाते हैं। 

मौर्यकालीन अशोक का चिन्ह भी राजतंत्र से लिया  गया एक ऐसा ही  धरोहर रुपी प्रतीक है । जो आज राष्ट्रीय चिह्न के रूप में  हमें शौर्य एवं पराक्रम जैसे मूल्य पर गौरवान्वित होने का मौका देता है।ऐसे धरोहर परक मूल्यों को ही   सांकेतिक पूंजी ,(simbolic capital) कहा जाता है।

मानव अस्तित्व के लिए आवश्यक मूर्त्त एवं अमूर्त सांस्कृतिक धरोहरों की महत्ता के  कारण ही  भारतीय  संविधान निर्माण के अग्रणी विद्वजनों ने  "समाज एवं संस्कृति की गौरवशाली परम्परा के संरक्षण के रूप में" भारतीय नागरिकों से 11 कर्त्तव्यों में से एक कर्तव्य धरोहरों के संरक्षण एवं सम्मान करने की बात करते हैं। ऐसे ही कर्तव्यपरक मूल्य  माननीय प्रधानमंत्री के विकसित भारत के भी उन पांच मूल्यों के नजदीक है जो हमें विकसित होने की यात्रा में समाज की समृद्ध परम्परा की जड़ों से जुड़े रहने की शिक्षा देते हैं। आधुनिक भारत के निर्माण में मूल्य परक तार्किक परमपराएं बाधक नहीं सहगामी एवं साधक हैं।

संगोल की स्थापना को सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक दृष्टि से देखना एवं इसकी आलोचना करना, दुनिया के मानव मूल्यों को संवर्धित करने वाले वौदिक विमर्शों से जुड़े पुरखों को अमर्यादित  एवं आलोचना के प्रतिमानों को स्वहित में प्रयोग करने जैसा है।


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