आजकल सुबह का समाचार पढ़ते हुए यह देखने को मिलता है कि कुछ खबरें लोगों के बड़ी संख्या में बिमार होने से सम्बन्धित हैं। इन बिमार लोगों में कुछ वेक्टर जनित रोगी(जीवाणु एवं वायरस) होते हैं और कुछ असंतुलित जीवन शैली के प्रभाव से उत्पन्न रोगी। विशेषकर हदय एवं मधुमेह/ सुगर से जुड़े हुए। वैसे भी अलग-अलग कारणों से जीवन शैली से जुड़ी बिमारियों का प्रसार निरंतर बढ़ रहा है।अभी हाल ही में 'लांसेट' नामक शोध पत्रिका ने भारत में हुए एक चिकित्सकीय सर्वे में इस बात की पुष्टि की है कि देश के अलग-अलग भागों की कुल आबादी का लगभग 11% जन समूह टाइप -2 श्रेणी के मधुमेह /सुगर से प्रभावित हैं। किसी बिमारी से ग्रसित होने के बाद व्यक्ति विशेष के स्वास्थ पर सुझाव देने का कार्य पेशेवर चिकित्सकों का होता है लेकिन कोई ऐसी विशिष्ट परिस्थिति जो स्वास्थ एवं मानव शरीर को प्रभावित कर रही हो। उस पर चर्चा करना सामान्य वैज्ञानिक सोच (scienfic Temper) का भी हिस्सा है।
भारत के मैदानी इलाकों में जून का महीना सामान्य से अधिक गर्मी का होता है। सामान्य से अधिक गर्मी का मापन पृथ्वी के मौसमी औसत तापमान से निर्धारित होता है। जैसे -जैसे वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन की प्रवृत्ति असंतुलित हो रही है।मानव जीवन का "अतिउपभोग आधारित विकास" एवं जीवन शैली ने पृथ्वी की पारिस्थितिकी को बदल दिया है। जिसके परिणामस्वरूप सूर्य , पृथ्वी एवं इन दोनों पर आश्रित मानव एवं अन्य जीवमंडल के बीच की अन्तनिर्भरता को असंतुलित कर दिया है । इन सभी घटकों के बीच पारस्परिक एवं संतुलित क्रिया एवं व्यवहार के जटिल अन्तर्सम्बन्धों को जानने के लिए जटिल अन्तर्विषयिक (Interdisplinary)विधागत विषयों की जरूरत होती है।आज जिस मुद्दे पर हमने चर्चा शुरू किया है। वह पिछले कुछ दिनों से बढ़ी हुई गर्मी के कारण मानव जीवन के अस्त व्यस्त होने एवं देश के अनेक मैदानी भागों में भीषण गर्मी से मरने वालों के उपर गर्मी के प्रभाव का एक सामान्य वैज्ञानिक सोच के द्वारा कारणों को जानने का प्रयास है।
ऐसा इसलिए भी क्योंकि गर्मी के प्रभाव से जुड़ी ख़बरें जब विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित होती हैं। इन खबरों में केवल अस्पतालों में बिमारों की भीड़ एवं अत्यधिक गर्मी का प्रभाव के उपर पूरी बात समेट दी जाती है। लेकिन कहीं पर भी इस बात की चर्चा नहीं होती कि बढ़ती गर्मी का मानव शरीर से जो पारिस्थितिकी जन्य सम्वन्ध है । उसमें ऐसा कौन सा तथ्यगत बदलाव आ जाता है। जिसके परिणामस्वरूप लोग अलग-अलग बिमारियों से प्रभावित हो जाते हैं । विशेषकर वे लोग जो जागरूकता एवं साधन की कमी एवं किन्हीं दूसरी बिमारियों के कारण पहले से ही ग्रसीत हैं। मौसमी बिमारियों के प्रति अधिकांश समाचार पत्रों में बिमारी के वास्तविक के प्रति अनदेखी की जाती है। अखबारों एवं दूसरे मीडिया खबरों की वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने के प्रति शून्यता ने हमें प्रेरित किया कि इस बात को लिखा जाना चाहिए । इसके लिए किसी विशेषज्ञता की जरूरत नहीं है। बल्कि हम एक सामान्य वैज्ञानिक सोच एवं जागरूकता से न केवल स्वयं को बल्कि असहनीय गर्मी से प्रभावित दूसरे नागरिकों को सुरक्षित कर सकते हैं।
हमारे संविधान का भी यह कहना है कि हमें स्वयं के साथ साथ समाज में वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देने का प्रयास करना चाहिए ताकि नागरिक स्वयं को अपनी समस्याओं के समाधान में तार्किक ढंग से व्यवहार कर सकें। वैज्ञानिकता की एक प्रमुख विशेषता किसी भी घटना से जुड़े कारणों को जानने में अंतर्निहित होता है। जानने की जिज्ञासा के साथ ही वैज्ञानिकता के चरण शुरू हो जाते हैं क्योंकि जहां कहीं भी कारण होगा। वहां कारण के साथ कोई कार्य एवं क्रिया भी जुड़ी होगी। जिसकी वजह से कारण उत्पन्न होता है। जैसे ही क्या के प्रश्नो के साथ व्यक्ति कारणों की खोज में आगे बढ़ता है। वैसे ही कार्य एवं क्रिया की जटिलता के साथ क्यों और कैसे के प्रश्न भी उभरने शुरू हो जाते हैं। क्यों और कैसे से जुड़े प्रश्न घटना की जटिलता पर निर्भर करता है। साथ ही यह सम्पूर्ण प्रक्रिया हमें वैज्ञानिक सोच की ओर ले जाती है।ताकि हम वास्तविक कारणों को जानकर स्वयं को जागरूक कर सकें। एवं किसी घटना के होने एवं उससे प्रभावित होने से वचने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें।
गर्मी का एहसास होना तापमान के अन्तर से जुड़ा विषय है।गर्म बस्तु का यह गुण हो जाता है कि वह कम गर्म की ओर प्रसारित होता है । जब तक गर्म बस्तु के इर्द गिर्द सभी पिंडों का ताप बराबर न हो जाए । जब भी मानव शरीर एक औसत स्थिति से अपने आप को असहज महसूस करता है। शरीर की पांच ज्ञानेन्दियों में से एक 'त्वचा' गर्मी से उत्पन्न असहजता के प्रति प्रतिक्रिया देती है। गर्मी का कम या अधिक होना भी मानव शरीर की ज्ञानेन्द्रियों द्वारा अपने आस पास के माहौल में पहले से बदलाव का ध्योतक होता है।यह तो हुआ मानव शरीर एवं तापमान के बीच आपस के सम्वन्धों की अनुक्रिया एवं प्रतिक्रिया से जुड़ी एक सामान्य समझ।
इससे एक कदम आगे बढ़कर देखते हैं तो हम पाते हैं कि हमारे वैज्ञानिक जगत में वैज्ञानिक खोजों के माध्यम से पहले से ही स्थापित है कि एक स्वस्थ मनुष्य के शरीर का औसत तापमान लगभग 37 डिग्री सेल्सियस या 98.6 डिग्री फारेनहाइट होता है। जब भी किसी व्यक्ति के शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाय तो चिकित्सकीय भाषा में उसे बुखार होना कहा जाता है। जिस प्रकार मानव शरीर का औसत तापमान एक स्थिर अंकीय रूप में स्थापित तथ्य है । ठीक उसी प्रकार पृथ्वी का भी एक औसत तापमान होता है । लेकिन पृथ्वी का तापमान स्थान परिवर्तन के साथ परिवर्तनशील होता है।
उदाहरण के लिए एक ही समय में जहां आज कल उत्तर भारत के अधिकांश क्षेत्रों का तापमान 42 डिग्री सेल्सियस से 44 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच रहा है। इस तापमान के कारण वायुमंडलीय गर्मी एवं मानव शरीर के बीच अन्तर होता है। जैसा कि हमने पहले कहा कि शरीर का औसत तापमान 37 डिग्री सेल्सियस के आसपास होता है एवं मानव शरीर इसी तापमान के लिए अनुकूलित होता है। अर्थात सामान्य जीवन चर्या को जीने में अभ्यस्त होता है। ऐसे में जब मानव शरीर का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस का हो और भारत अधिकांश स्थलीय भाग के वायुमंडल का तापमान 42 डिग्री सेल्सियस से 44 डिग्री/45 डिग्री के आसपास हो।ऐसी स्थिति में मानव शरीर से क्षेत्र का तापमान 5 से 6 डिग्री अधिक होना स्वस्थ शरीर के लिए अनुकूलित कैसे हो सकता है। जैसा कि चिकित्सा विज्ञान में यह स्थापित तथ्य है कि 37 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान वाले मानव शरीर में बुखार होने की पुष्टि की जाती है
ऐसे में जब किसी क्षेत्र विशेष का तापमान ही मानव शरीर के तापमान से अधिक हो । इस स्थिति को सहजता से कहा जा सकता है कि गर्मी के दिनों में जहां क्षेत्रीय स्थलों का तापमान 42 से 43 डिग्री सेल्सियस है। पारिस्थितिकीय रूप में वह क्षेत्र ही मानव शरीर के सन्दर्भ में बुखार जनित क्षेत्र है। यदि किसी समय काल में मानव जीवन के निवास एवं कार्य क्षेत्र ही वुखार सदृश्य हो । ऐसे में व्यक्ति के शारीरिक स्थिति में अलग-अलग आयु एवं पहले से अलग-अलग बिमारियों से ग्रसित लोगों के लिए ऐसी स्थिति कहीं से भी जीवन अनुकूल नहीं मानी जा सकती।और शरीर के सम्पूर्ण तंत्र का वुखार की स्थिति से गुजरने के रुप में देखा जा सकता है। जिसके कारण शरीर में पानी की कमी, शरीर के मेटाबॉलिज्म (उपापचयी क्रिया) के प्रभावित होने के कारण शरीर में असहजता की स्थिति उत्पन्न होना स्वभाविक हो जाता है।
यही कारण है कि आधे अप्रैल से लेकर जब तक सूर्य का दक्षिणायन न हो तब तक उत्तर भारत का मैदानी क्षेत्रीय वातावरण मानव शरीर के अनुकूल नहीं होता।
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