समान नागरिक संहिता संविधान, सरकार एवं समाज के लिए फलदायी

                                           Amber Avalona from Pixabay



समान नागरिक संहिता संविधान,सरकार एव समाज के लिए फलदायी

भारत अर्थात इंडिया संकल्पना  की नींव सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता पर टीका है। जहां प्रमुख रूप  से 9 धर्म, 3000 जातियां,650 जनजातियां एवं अनेक मतों को मानने वाले लोग निवास करते हैं। व्यक्ति एवं समूह के रूप में सभी सांस्कृतिक स्तर पर अपने- अपने धर्म एवं मत का  पालन करते हैं। देश के संविधान ने सभी को अपनी धार्मिक आस्थाओं के अनुसार पूंजा पद्धतियों को मानने का अधिकार दिया है। संविधान में अधिकार एवं कर्त्तव्यों के साथ सांस्कृतिक समूहों का राज्य के साथ जो संम्बध है वह राज्य और नागरिक(State-citizen) का है। राज्य एवं नागरिक के बीच संबंध का निर्धारण संहिताबद्ध विधि एवं कानूनों के द्वारा होता है। जिसका संरक्षण संविधान के माध्यम से न्यायालयों के द्वारा किया जाता है। 

भारतीय संविधान का दर्शन विधि एवं कानून के सर्वोच्च अभिलेखीय स्त्रोत के रूप में  सभी नागरिकों के लिए एक रूप ढंग से कानून के समक्ष समता का प्रावधान करता है। अपवादस्वरूप कुछ सकारात्मक विभेदीकरण के प्रावधानों ( constitutional provisions for Affirmative Action) को छोड़कर।अधिकारों के स्तर पर नागरिक स्वयं में, एवं संविधान की दृष्टि में, उसके सभी अधिकार समान हों,इस मूलभूत धारणा पर कार्य करता है । लेकिन सांस्कृतिक विविधता के कुछ संस्कार रूपी कार्यो को छोड़कर  (विवाह से जुड़ी प्रथाएं...)। विविधता से युक्त  परिवारों के विविध आयामों से जुड़े विवाद जैसे कि पति-पत्नी के बीच उत्पन्न वाद , विवाद की स्थिति में माता पिता के साथ उत्तराधिकार से सम्वन्धित वाद, धर्म विशेष से जुड़े पर्सनल लॉ के द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। 

लेकिन पर्सनल लॉ से संबंधित विवाद के निस्तारण में संविधान के दर्शन की भी मदद ली जाती है। विशेषकर जहां कहीं भी  संवैधानिक मूलाधिकारों से जुड़े प्रश्न खड़ा होते हैं। ऐसे में धर्मों के पर्सनल लाॅ एवं संविधान के साथ उनकी व्याख्या में कई बार गतिरोध की स्थिति बन जाती है । जहां तक भारत में पर्सनल लाॅ की बात है। यह हिन्दू समाज के लिए हिन्दू कोड बिल , मुस्लिम समाज के लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ एवं इसी प्रकार सिक्ख, इसाई, वौध, जैन, बहाबी,पारसी,ज्यूज, आदि सभी के लिए अपने अपने पर्सनल लॉ  है।

जनजातिय समूहों को जिन्हें उनकी भौगोलिक एवं सांस्कृतिक अजायबता एवं विशिष्ट नृजातिकेन्द्रीयता(Ethnocentrism) की भावना के कारण संविधान में एक विशिष्ट अनुसूचित के द्वारा संरक्षित किया गया है। इनके अपने परिवार, विवाह,एवं नातेदारी के साथ उत्तराधिकार से जुड़े अलग परम्परा आधारित सांस्कृतिक कानून  हैं। धर्म, पंथ, एवं नृजातीयता आधारित इन सभी धार्मिक समूहों की विविधता न्याय प्रणाली के लिए कितनी सहज एवं असहज हो सकती है इसे आसानी से समझा जा सकता है।

इस सामाजिक विविधता भरी जटिलता को समाज वैज्ञानिक अध्ययन के द्वारा भी तथ्यगत रूप से अवलोकित किया जा सकता है। प्रसिद्ध सामाजिक चिंतक एवं भारतविधाशास्त्री (Indologist) इरावती कर्वे के क्लासीकल अध्ययन किंनशीप आर्गेनाइजेशन इन इंडिया (kinship organization in India. 1953) नामक पुस्तक में यह बताया गया है कि भारत नातेदारी एवं उसके विविध स्वरुपों के आधार पर चार सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप में बंटा है। यह विभाजन भारत की भौगोलिक स्थिति के साथ भी जुड़ा हुआ है। भौगोलिक सांस्कृतिक विभाजन में इरावती कर्वे ने जिन चार वृहद स्वरूपों को बताया है।उनमें भारत का उत्तरी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, मध्य क्षेत्र, एवं पूर्वी क्षेत्र सम्मिलित है। आज के भारत के सभी प्रमुख 28 राज्य इस विभाजन के अंर्तगत आते हैं।

इन अलग-अलग सामाजिक भौगोलिक परिक्षेत्रों में मिताक्षरा एवं दायभाग जैसे उत्तराधिकार के नियमों के साथ मात्रृसत्तात्मकता एवं पित्रृसत्तात्मकता के साथ कुछ मिश्रित परम्पराओं का जिक्र करते हुए सम्पूर्ण भारत की सामाजिक संस्थागत विविधता को उद्घाटित किया गया है। इस समाज आधारित क्षेत्रीय विभाजन से नातेदारी प्रणाली,परिवार,विवाह एवं उत्तराधिकार की विविधता एवं जटिलता को समझा जा सकता है।

इसी प्रकार मुस्लिम समुदाय के साथ अन्य धर्मों में भी विविधता परक व्यवस्थाएं हैं। इस सम्पूर्ण अवलोकन से एक बात स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय समाज विविधता के नाम पर स्वयं में एक अजायबघर है, लेकिन जब कभी इन अलग-अलग परम्पराओं से जुड़े विवाद आधुनिक न्याय एवं कानून के समक्ष पहुंचते हैं ।उनसे जुड़ी न्याय की प्रक्रिया कई बार विवादों का रूप ग्रहण कर लेती है।साथ ही कानून में एकरुपता न होने के कारण देश की जनता को न्याय प्रणाली में देरी का सामना करना पड़ता है।

आज न्यायालयों के समक्ष पेंडिंग मामलों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। ऐसा भी नहीं है कि पर्सनल लाॅ से जूडे कानूनों में सुधारात्मक कदम नहीं उठाए गए। समय - समय पर केन्द्र एवं राज्य की सरकारों के द्वारा अलग -अलग कानूनों के माध्यम से कुछ सुधार का प्रयास किया गया है। जैसे 1954 एवं 1955 में हिन्दू विवाह सुधार अधिनियम ..  एवं कुछ अन्य एवं बहुत न्यून रूप में मुस्लिम समुदाय के लिए विशेषकर तीन तालाक जैसे कानून का निर्माण किया गया है।

लेकिन यह सभी प्रयास  धर्म विशेष के भीतर की विसंगति को संविधान एवं कानून आधारित करने का एक बेहतर लेकिन छोटा प्रयास है, क्योकि ये सभी कानून  समय-समय पर न्यायालयों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों एवं सरकारों को न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों के परिणामस्वरूप संवैधानिक न्याय की द्वैधता (Duality) को समावेशी करने के प्रयास का परिणाम है।भारत की तीन प्रमुख सामाजिक संस्थाएं धर्म, जाति, एवं परिवार चाहे वह किसी भी समुदाय से समवद्द हों । तीनों घनिष्ठ रूप से एक दूसरे से जुड़ी हैं।इस जुड़ाव का ही परिणाम है कि अनेक अच्छाइयों के वावजूद समाज में समय समय पर अलग-अलग विसंगतियों ने भी जन्म लिया है।

जैसे परिवारवाद.... एवं इसी तरह के अन्य वाद। सामाजिक व्यवहारों में किसी भी प्रकार का भेदभाव पैदा न हो अन्य कारणों में से शायद  यह भी एक कारण है। जिसके परिणामस्वरूप संविधान में कानून की समता के साथ साथ आगे चलकर पंथनिरपेक्षता का प्रावधान किया गया , लेकिन सांस्कृतिक जटिलता के प्रश्न यदि विविधता भरे कानून से तय होंगे । यह आज के आधुनिक भारत एवं इसकी  न्याय प्रणाली के लिए ठीक नहीं।

हमारा संविधान 'व्यक्ति में समाज एवं समाज में व्यक्ति की धारणा का प्रतिविम्ब है। दूसरे रूप में यदि हम कहें कि व्यक्ति एवं समाज एक दूसरे के पूरक हैं तो गलत नहीं होगा। इसमें किसी प्रकार की द्वैधता नहीं है । कानून के स्तर पर द्वैधता का अर्थ है । संविधान का समावेशी समाज की संकल्पना से दूर होना। स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण से जुड़े मनीषियों के मन में यह विचार विद्यमान रहा  होगा कि समाज में कानून के स्तर पर द्वैधता (Duality) न हो । इसके प्रति वे सचेत थे।

इसको ध्यान में रखते हुए संविधावेत्ताओं ने संविधान निर्माण से जुड़े वाद विवाद में आपस में समान नागरिक संहिता पर विरोधाभास के बावजूद भी राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल विविधता को स्वीकार करते हुए भविष्य की प्रगतिशील पीढ़ी के उपर इस कार्य की जिम्मेदारी देते हुए संविधान के अनुच्छेद 44 में एक भविष्योन्मुख लक्ष्य के साथ राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के प्रावधान के रूप में स्थान दिया।

कोई इस प्रश्न को पूछ सकता है कि वर्तमान में इस कानून की क्या जरूरत ? स्वतंत्रता के समय ही ऐसा क्यों नहीं किया गया? पहले प्रश्न का जवाब में है कि बड़े राजनीतिक निर्णय सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति पर निर्भर करता है। किसी भी प्रकार के तुष्टिकरण से बड़े निर्णय नहीं लिए जाते । दूसरे प्रश्न के सन्दर्भ में यह बताना महत्त्वपूर्ण होगा कि भारत अनेक चुनौतियों का सामना कर स्वतंत्रता के बाद एक राष्ट्र के रुप में अस्तित्व में आया। राष्ट्रनिर्माण एक लम्बी एतिहासिक प्रक्रिया का भाग होता है। अंग्रेजों की सामाजिक स्तर पर फूट डालो और राज करो की नीति के समक्ष सभी भारतवासियों ने एक जुटता का परिचय धर्म ,जाति, क्षेत्र से उपर उठकर एक राष्ट्र के रुप में स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया।

लेकिन स्वतंत्रता की आड़ में धर्म को हथियार बनाकर देश का विभाजन हो गया। देश अभी अभी आजाद हुआ था । देश को प्रगति के रास्ते पर आगे बढ़ना था। ऐसे में राष्ट्र निर्माण में समुदायों के बीच तटस्थता का भाव रखा गया, लेकिन बाद की सरकारों ने समुदायिक तुष्टिकरण एवं वोटबैंक की राजनीति के कारण इसके प्रति मौन धारण कर लिया। संविधान के जिस भाग में इस कानून का प्रावधान किया गया है।उसे राज्य एवं सरकारों के लिए मार्गदर्शक माना जाता है। भविष्य के समाज की चुनौतियों के अनुसार सरकारें इस भाग के अनुच्छेदों का प्रयोग करके व्यापक सामाजिक हित में अलग-अलग कानूनों का निर्माण करती रही है। 

इसके अतिरिक्त एकरूप कानून की स्थिति में न्यायालय के साधन एवं समय का बेहतर सदुपयोग हो सकेगा,क्योंकि वर्तमान की परिस्थितियों में दो ढंग के कानून के साथ काम करने से न्याय की आत्मा द्वैधतापूर्ण होने के विपरित ज्यादा समावेशी हो सकेगी। साथ ही संविधान निर्माताओं द्वारा  भारत की कल्पना का स्वप्न भी वास्तविक रूप प्राप्त कर सकेगा। इस प्रक्रिया के मूर्त रूप लेने से पूर्व कुछ राजनीतिक दलों का सरकार के साथ आना उनकी संविधान के प्रति ली गई शपथ के प्रति विश्वास को दर्शाता है।

सरकार का समान नागरिक संहिता के प्रति दृढ़ संकल्पित होकर जनता के बीच इससे जुड़े मसौदे को विमर्श एवं सुझाव के लिए रखना । समग्र रूप में वर्तमान सरकार की एक "भारत श्रेष्ठ भारत" एवं "सबका साथ सबका विश्वास" के मार्गदर्शन के साथ कार्य कर रही है। ऐसे में समान नागरिक संहिता का बनना विकसीत राष्ट्र के रास्ते में 'एक नागरिक एक कानून' की संकल्पना को मूर्त्त रूप देना है।जिसके द्वारा कानून के माध्यम से सामाजिक जुड़ाव के रूप में एक मजबूत सामाजिक पूंजी (Social capital) के साथ समता आधारित नागरिक केन्द्रित नागरिक परिक्षेत्र(civil sphere) को बढ़ावा मिलेगा। यह समग्र रूप में संविधान, सरकार एवं समाज के लिए एक फलदाई कार्य होगा।

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